Saturday, October 17, 2009

एक वकील से साक्षात्कार



अमित जोगी का नाम एक समय खासा चर्चित रहा है. विवादों और संघर्षों का अमित के साथ चोली-दामन का साथ रहा है. एक समय वे प्रदेश में शक्ति के दुसरे केंद्र के रूप में जाने जाते थे. उस दौर में अमित की तूती बोलती थी, यह कहना गलत नहीं होगा. हालांकि इन बातों से वे इनकार भी करते हैं. श्री जोगी के पास स्पष्ट सोच है और वे अपनी बातों को बड़े सलीके से रखते हैं. "छत्तीसगढ़ वॉच" ने उनके जीवन के अलग-अलग पहलुओं को स्पर्श करने की कोशिश की है.

आप शादी कब कर रहे हैं?
नए जीवन की नई शुरुआत है. पहले इरादा सेटल होने का है. माता-पिता जब आदेश देंगे, शादी कर लेंगे. वे ही रिश्ता तय करेंगे. मेरा मानना है की शादी दो विभिन्न परिवारों का सम्बन्ध है, जिसमे पहले बड़ों की सहमती होनी चाहिए. उसके बाद हमारी सहमती की बात आती है.

कैसी दुल्हन की कल्पना है?
घरेलू हो और माता-पिता की सेवा करे.

आपके आदर्श कौन हैं?
व्यक्तिगत जीवन में मेरे पिता जी ही मेरे आदर्श हैं. उनमें जबरदस्त विल-पॉवर है. उनसे मैं नीचे से ऊपर उठने की प्रेरणा प्राप्त करता हूँ. वैचारिक रूप से पंडित जवाहर लाल नेहरु मेरे आदर्श हैं. अनेकता में एकता की विचारधारा को उन्ही ने साकार किया है. देश स्वतंत्रता के पहले से ही अलग-अलग भाषा-बोली, वर्गों, वर्णों और क्षेत्रों में बंटा था. नेहरु जी ने ही सही मायनों में भारतीयता का निर्माण किया है.

पिता के किन गुणों से प्रभावित हैं?
पिता जी की दृढ़ इच्छा शक्ति से मैं बहुत प्रभावित हूँ. सोचता हूँ की वे इतनी शक्ति कहाँ से इकट्ठी करते हैं! वे प्रदेश की जनता से खुद को सीधा जुड़ा महसूस करते हैं. इसे मैं "excessive self identification" कहता हूँ. लोगों से सीधे तौर पर जुड़ने की यह प्रवृत्ति ही शायद उनकी इच्छा शक्ति बनती है. वे कहते भी हैं की मेरे दोनों पाँव नहीं है तो क्या हुआ, छत्तीसगढ़ की दो करोड़ जनता के चार करोड़ पाँव मेरे ही हैं. उन्हें ये ताकत जनता से मिलती है और मैं इन्ही बातों से प्रभावित हूँ.

पिता की लोकप्रियता के बारे में क्या कहते हैं?
छत्तीसगढ़ ने उन्हें बहुत प्यार दिया है.

आप भी लोकप्रिय हैं.
हो सकता है, लोग यह सोचते हैं, पर उनसे तुलना मैं नहीं कर सकता.

छत्तीसगढ़ से कांग्रेस क्यों उखड़ी?
उखड़ गई यह कहना ठीक नहीं है, यह कहना चाहिए की लड़खड़ा गई है. विशेष रूप से आदिवासी इलाकों में कांग्रेस संगठन से कमजोर है. कांग्रेस के ४ मोर्चा संगठनों की अपेक्षा RSS की ५७ संस्थाएं हैं जो इन इलाकों में गहरी पैठ बनाने में लगी हुई हैं. संकल्प कोचिंग, एकल विद्यालय, वनवासी कल्याण और वाल्मीकि आश्रम, और सरस्वती शिशु स्कूल आदि के माध्यम से वे लोग काम कर रहे हैं. वे २४ घंटे, सातों दिन और बारहों महीने सक्रीय हैं. लेकिन कांग्रेस के संगठन फील्ड में नहीं दिखते. फिर भी यह बात भी नकारी नहीं जा सकती की कांग्रेस, और विशेषकर नेहरु-गांधी परिवार, का यहाँ आज भी प्रभाव है. पर हमारा संगठन इसका लाभ नहीं ले पा रहा है. कांग्रेस को संघ से सीखना पड़ेगा, काम करना पड़ेगा.

मेरा मानना है की कांग्रेस संगठन के रूप में कम, एक जनांदोलन के रूप में ज्यादा लोकप्रिय है. कांग्रेस अब फिर उठने की प्रक्रिया में चल पड़ी है, और राहुल जी इस अभियान के सूत्रधार के रूप में उभरे हैं. वे संगठन के ढाँचे को मजबूत करने में लगे हैं. पंजाब, उत्तराखंड, गुजरात, पुदुचेरी और छत्तीसगढ़ में युवा संगठनों के चुनाव नीचे स्थर से पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से हुए हैं. इस से पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र आ रहा है. छत्तीसगढ़ में भी हाल ही में NSUI के चुनाव निर्वाचन पद्धति से संपन्न हुए हैं. सिर्फ ४० दिनों में ८०००० छात्र-सदस्य बनाए गए. इन छात्रों ने लगभग ४८०० प्रतिनिधियों का चयन किया, और उन्होनें जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्थर पर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव किया है. यह राहुल जी और कांग्रेस की एक बड़ी उपलब्धि है. इन सभी चुनावों को पार्टी ने नहीं बल्कि भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त, श्री लिंगदोह, की संस्था, FAME, ने करवाए. राहुल गाँधी का प्रयोग सफल रहा है.

कांग्रेस में गुटबाजी पर आप क्या कहेंगे?
कांग्रेस सिर्फ नेहरु-गाँधी परिवार के बैनर के तले है. कोई भी व्यक्ति का कोई गुट नहीं है. कांग्रेसजनों का वास्ता सिर्फ इस एक परिवार से है, और किसी से नहीं. वे ही सर्वोपरि हैं. पूरे देश में सिर्फ इस एक परिवार के प्रति जबरदस्त अपनत्व का भाव है. राहुल जी की सक्रियता से पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र कायम होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. आतंरिक चुनावों से पार्टी मजबूत होगी. "Youth Transforming" (युवा परिवर्तन) अभियान के तहत आने वाले दो सालों में सभी प्रदेशों में चुनाव निपटा लिए जायेंगे. और जहाँ तक गुटबाजी का सवाल है तो मैं चाहूँगा कि यह ख़त्म हो. मैं समझता हूँ कि पार्टी में युवा नेतृत्व को, NSUI और युवा कांग्रेस के माध्यम से उभारने की जो कोशिश शुरू की है, उससे भी गुटबाजी पर रोक लगेगा.

आने वाले स्थानीय निकाय चुनावों के सन्दर्भ में क्या रणनीति होगी?
स्थानीय निकाय चुनाव में युवाओं को आगे आना होगा. इन चुनावों में पार्टी और मुद्दों की अपेक्षा व्यक्तिगत छवि ज्यादा मायने रखती है. लोग व्यक्ति देखकर वोट करते हैं, ऐसे लोगों को चुनते हैं जो उनके सुख-दुःख, दुःख-दर्द में शामिल होते हैं, जिनका सीधा सततः संपर्क उनसे होता है. (इस प्रसंग में अमित जोगी ने बृजमोहन अग्रवाल की व्यवहारिकता, मिलनसारिता की खूब तारीफ़ की. उन्होंने कहा कि श्री अग्रवाल न सिर्फ शादी-ब्याह के मौके पर उपस्थित रहते हैं बल्कि करनी-मरनी के मौके पर भी उपस्थित रहते हैं. चुनाव में पार्टी नहीं, बृजमोहन जी जीतते हैं.)

आखिर युवा आगे कैसे आयेंगे?
मेरी सोच है कि युवाओं को स्थानीय चुनाव में ज्यादा से ज्यादा मौका दिया जाना चाहिए. कांग्रेस में जीतने की क्षमता और युवा होना, चुनावों में मापदंड के रूप में अपनाए जाने चाहिए.

क्या युवाओं के लिए आरक्षण होगा?
ऐसा फिक्स नहीं है.

अजीत जोगी दुष्प्रचार के शिकार हुए हैं. क्या आप सहमत हैं?
राज्य बनने के बाद उन्हें प्रदेश का नेतृत्व मिला. तब तक प्रदेश पर कुछ लोगों का एकछत्र राज था. तमाम महत्वपूर्ण पदों में उनका दबदबा था. इस वर्ग में, "speaking class" में, अजीत जोगी जी की स्वीकार्यता नहीं बन पाई. विशेष रूप से राजधानी में.

जोगी जी पर तानाशाही के आरोप भी लगाये जाते रहे हैं. आप क्या सोचते हैं?
जोगी जी यह मानते हैं कि दो करोड़ छत्तीसगढ़ के वासी उनके साथ हैं. जनता से उनका यह प्रेम कभी-कभी कमजोरी भी बन जाता है. वे अन्याय को जब कभी व्यक्तिगत रूप से लेते हैं, और उस पर प्रतिक्रया व्यक्त करते हैं, तब लोग उन्हें हिटलर कह देते हैं. ठीक वैसे ही जब फ्रांस के सम्राट लुइ चौदह कहा करते थे, "l'etat c'est moi" (मैं राज्य हूँ). जोगी जी भी खुद को छत्तीसगढ़ से उतना ही जुड़ा महसूस करते हैं. लोग इस गहरे प्यार को दुसरे ढंग से देखते और समझते हैं. मैं तो मानता हूँ कि आज राजनीति में ध्यानचंद का ज़माना नहीं रह गया. इस डी से उस डी तक अकेले गेंद ले जाने का अब चलन नहीं है. छोटे-छोटे पास देने का ज़माना है. इसके लिए टीम वर्क जरूरी है. संतुलन, समन्वय और टीम वर्क होना चाहिए. सभी को महत्व देने की जरूरत है.

भाजपा और RSS के बारे में क्या विचार है?
संघ की सादगी ख़त्म हो गयी है. व्यक्तिवाद के सामने, संघ और भाजपा दोनों दब से गए हैं. ठाकरे जी जैसी सरलता और सादगी ख़त्म हो गई है. कहने का मतलब है, संघ और भाजपा विचारधारा से हटकर अब व्यक्ति-केन्द्रित ज्यादा हो रहे है.

कहा जाता है रमन सिंह के सौम्य चेहरे ने दुबारा भाजपा की वापसी की है.
मैंने पहले ही कहा है कि जोगी जी दुष्प्रचार का शिकार हुए हैं. फिर कारण चाहे जो भी हो, भाजपा को दुबारा जनादेश तो मिला है. जनादेश का मतलब सौ खून मुआफ!

अजीत जोगी और रमन सिंह में क्या अंतर है?
सिर्फ किस्मत का. रमन सिंह जी की तकदीर ज्यादा बुलंद है. कुछ पद राजनीति में ऐसे होते हैं, जैसे मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति, जो सिर्फ तकदीर से मिलते हैं. संघर्ष से विधायक, सांसद या फिर मंत्री तो बना जा सकता है, लेकिन प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री जैसे पदों के लिए भाग्य का सहारा भी जरूरी है. भाजपा में रमन सिंह जी से वरिष्ट, अनुभवी और ज्यादा संघर्षशील लोग हैं पर भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया.

लोग कहते हैं कि जोगी परिवार के रणनीतिकार आप हैं. आप क्या कहते हैं?
मैं कांग्रेस का सदस्य हूँ. मरवाही का मतदाता हूँ. अन्य कांग्रेसजनों की तरह वे मेरे सुझावों को भी सुनते हैं.

लोग राजनीति को गन्दी कहते हैं. आपके क्या विचार हैं?
मैं ऐसा नहीं मानता. भारत चाणक्य का देश है. आज भी राजनीति के बहुत से नियम और नीतियाँ घोषित और अघोषित रूप से चाणक्य-विष्णुगुप्त-कौटिल्य की बताई हुई चल रही है. राजनीति को समाज सेवा से अलग रख कर देखे जाने कि जरूरत है. राजनीति परिवर्तन लाने का सबसे तेज और सशक्त माध्यम है.

क्या आप चुनाव लड़ना चाहते हैं?
राजनीति में जब भी आऊँगा, सार्वजनिक जनादेश लेकर ही आऊँगा. जनता की स्वीकृति अंतिम और अनिवार्य है.

आपकी महत्वाकान्शाएं क्या हैं?
महत्वाकान्शाएं तो बहुत थी, पर जेल से लौटने के बाद वे सारी ख़त्म हो गयी. कीमती कपडों, घड़ी और जूतों का शौक था, अब वह भी नहीं रहा. अब ऐसे मेहेंगे शौक पालने की आत्मा गवाही नहीं देती.

आपकी ज़िन्दगी का दुखद पल कौन सा है?
पिता जी की भयंकर दुर्घटना और मेरा जेल जाना. जेल में मैंने जिंदगी का पाठ पढ़ा है. दुखी को निकट से देखा, समझा. कुल मिलाकर जेल में मेरा दूसरा जन्म हुआ है.

क्या गुस्सा आता है?
अब काफी हद तक वो भी नियंत्रित हो गया है. जरूरी हुआ तो कुछ अत्यंत ही करीबी लोगों के सामने उजागर करता हूँ. मन में अब ऐसी भावना ही नहीं रही कि किसी पर गुस्सा करूं.

अपराध बढ़ रहे हैं, आप क्या सोचते हैं?
हर क्षेत्र में अपराध बढ़ा है. कानून-व्यवस्था और प्रशासन के अलावा और भी कारण हैं. अपराधियों के बरी हो जाने का दोष वकीलों को नहीं देना चाहिए. जो कोर्ट से बरी हो जाएँ, उन्हें निर्दोष मानना ही सभ्य व्यवहार है. कोर्ट के निर्णय से पहले ही फैसले न हों. हमारी न्याय-प्रणाली बहुत सुदृढ़ है, हमें उसपे भरोसा रखना चाहिए. अब तो त्वरित न्याय के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाये जा रहे हैं, ग्राम अदालतों का गठन किया जा रहा है, कोर्ट के बाहर विवाद अनिवारण के तरीकों को कानूनी प्रोत्साहन मिल रहा है.

देश की न्याय-पध्दति सुस्त रफ़्तार है. आप क्या सहमत हैं?
चाहे जो हो, पर लोगों का भरोसा आज भी न्यायपालिका पर है. साधन की कमी न्याय में देरी की वजह है. देश की अदालतों में न्यायधीशों के हजारों पद आज भी रिक्त हैं. यह सरकार की जिम्मेदारी है कि इन पदों पर भरती प्रक्रिया शुरू हो, सक्षम लोगों का चयन हो. कोर्ट के समक्ष छोटे-मोटे विवादों की संख्या भी बढ़ी है. बहुत से ऐसे मामलों में लोक अदालतें कारगार हो सकती हैं.

बड़े बाप का बेटा होना कैसा लगता है?
लाभ है तो हानि भी है. मुझ पर आपराधिक मामला भी नहीं चलता. पर फिर लोगों का, विशेषकर से युवा वर्ग का, प्यार भी नहीं मिल पाता.

पहली कमाई का आपने क्या किया था?
पिता जी के हाथों में रख दिया. उनके चेहरे पर आये संतोष और गर्व के भाव देखकर बहुत ख़ुशी हुई थी. अब घर-खर्च में भी हिस्सेदारी निभाने लगा हूँ. बिजली और फोन का बिल का भुगतान मेरे हिस्से आ गया है.

आजकल आपके ब्लॉग में कोई नई बात नहीं आ रही है.
आजकल कोर्ट में ही व्यस्त हो गया हूँ. इसलिए बाकी गतिविधियों को ज्यादा समय नहीं दे पा रहा हूँ. जल्द ही ब्लॉग के लिए भी समय निकालने की कोशिश करूंगा.

सुना है आपने किताब भी लिखी है.
हाँ. जेल में चिंतन-मनन का मौका मिला. जेल डाईरी लिखी, जल्द ही छपेगी. इसमें जेल में मैंने जो देखा, जो महसूस किया, उसे इमानदारी से लिखा. इसके छपने के बाद हो सकता है कि बहुत से लोगों को अड़चन भी होगी. जेल में नाटक भी लिखा, और कविताएँ भी.

कोर्ट कि जिंदगी कैसी लग रही है?
रोज़गार के लिए मैंने वकालत को अपनाया है. इसलिए पूरी तन्मयता से वकालत कर रहा हूँ. पहले कानून मेरा पीछा करता था, अब मैं कानून का पीछा कर रहा हूँ. मुकद्दमे के दौरान, कठघरे में, ही मैं कानून की बहुत सी बारीकियों को जान सका. ये मेरी प्रैक्टिकल ट्रेनिंग थी. अब कोर्ट में जिरह-बहस के दौरान विशवास आता जा रहा है, सभी का सहयोग और आर्शीवाद भी मिल रहा है. वैसे वकालत मेरा पेशा है. हर वर्ग के, हर किस्म के क्लाइंट हैं. भाजपा के भी बहुत से लोग मेरे मुवक्किल हैं.

जसवंत सिंह की किताब पर आपके क्या विचार हैं?
इस किताब को मैं इतिहास मानता हूँ. ये एक शोध-परक पुस्तक है. इसे मैं आधे से ज्यादा पढ़ चुका हूँ. अडवाणी जी की आत्मकथा, My Country, My Life, भी पढ़ चूका हूँ. जसवंत सिंह जी के विचार अडवाणी जी से मेल खाते हैं.

त्यौहार कौन सा पसंद है?
होली, ईद और बड़ा दिन ख़ास तौर पर पसंद हैं. पर सभी त्यौहारों को मनाता हूँ. एक दिन का सांकेतिक रोजा रखता हूँ, जन्माष्टमी पर उपवास करता हूँ, पूरी आस्था से नवरात्रि, होली-दिवाली मनाता हूँ. मैंने प्रायः सभी धर्मों का अध्ययन किया है. सभी धर्मों के त्यौहार और सिद्धांत आपसी भाईचारे की सीख देते हैं. इसे धर्मशास्त्री गोल्डन रूल कहते हैं.

कैसा भोजन पसंद है?
लोग जिंदा रहने के लिए खाते हैं, और मैं खाने के लिए जिंदा हूँ! शाकाहारी और मासाहारी, दोनों का बराबर शौक है. मेरी भोजन-प्रियता देखकर पिता जी कई बार कहते हैं कि मेरी जिंदगी लंच और डिनर तक ही सीमित है. मेरी अपनी सोच है कि मैं खाने या नाश्ते की टेबल पर अपनी बात ज्यादा सही ढंग से रख सकता हूँ. आमने-सामने चर्चा यहीं अपनत्व भरे माहौल में ज्यादा आत्मीयता से होती है जबकि जनसभाओं में सीधा संवाद नहीं हो पाता. माइक के सामने खड़े होकर भाषण देने से संवाद कायम नहीं होता, एकालाप होता है. बोलना ख़त्म होते ही संपर्क टूट जाता है.

फिल्मे देखते हैं?
हाँ, मगर हिंदी के मुकाबले विदेशी फिल्मे ज्यादा देखता हूँ. नायिकाओं में वहीदा रहमान जी बेहद पसंद हैं, उनकी टाइमलेस ब्यूटी है. नायकों में बलराज साहनी जी और खलनायकों में अमरीश पूरी जी पसंदीदा कलाकार हैं.

इन दिनों आपके क्या शौक हैं?
लिखना और पेन्टिंग करना मुझे पसंद है.

अपनी विशेष उपलब्धि किसे मानते हैं?
अभी तक ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है जो उल्लेखनीय हो.

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Monday, August 10, 2009

आई रे आई, एन.एस.यू.आई.

नोट: लेखक सन १९९८ से २००२ तक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, में एन.एस.यू.आई. के सक्रीय सदस्य के रूप में कार्यरत था.
छोटी सी आशा
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के छात्र संगठन, एन.एस.यू.आई., के चुनाव हो रहे हैं. उत्तराखंड के बाद छत्तीसगढ़ दूसरा राज्य है जिसे पार्टी ने चुनाव के लिए चुना है, जो अपने आप में हमारे लिए गर्व की बात है: कांग्रेस, कांग्रेस की विचारधारा, और कांग्रेस के युवा नेतृत्व, जिसके प्रतीक स्वयं राहुल गाँधी हैं, से सीधे जुड़ने का अवसर हमारे प्रदेश के छात्रों को मिला है. इसका पूरा पूरा लाभ उनको लेना चाहिए.

इस प्रक्रिया से प्रदेश में पार्टी में जो मायूसी के बादल छाय हुए हैं, हटना शुरू होंगे, और एक ऐसे नए नेतृत्व, जिसका सीधा सम्बन्ध यहाँ के छात्र जीवन से है, का जन्म होगा.

संगठन चुनाव पार्टी के लिए कितना महत्व रखते हैं, इसका अंदाजा केवल इस एक बात से लगाया जा सकता है: लोक सभा की शानदार जीत के ठीक बाद जब उस जीत के सूत्रधार, श्री राहुल गाँधी, से पुछा गया कि उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि वे क्या मानते हैं, तो उन्होंने दो-टूक जवाब दिया:
उत्तराखंड, पंजाब और गुजरात में हुए कांग्रेस के युवा संगठनों के चुनाव.

उनके इस कथन के पीछे बहुत ही सरल किन्तु दूरगामी सोच निहित है.

हल्ला बोल
वामपंथियों और आर.एस.एस. की तरह कांग्रेस कभी भी काडर पर आधारित पार्टी नहीं रही है. मेरा तो यहाँ तक मानना है कि कांग्रेस कभी भी पार्टी/संगठन के रूप में सफल नहीं रही है: महात्मा गाँधी से लेकर सोनिया गाँधी तक, कांग्रेस ने जब भी एक जनांदोलन का रूप धारण किया है, तभी उसे सफलता हासिल हुई है. और किसी भी जनांदोलन का निर्माण तभी हो सकता है जब जनता अपने नेतृत्व का चयन स्वयं करे, न कि उस पर ऊपर से 'नेता' थोपे जाएँ.

लगभग पिछले एक दशक से कांग्रेस, और विशेषकर कांग्रेस के युवा संगठनों, में नेतृत्व का निर्णय पार्टी के बड़े नेताओं से पूछकर किये जाने की परम्परा बन गई थी. इसका नतीजा यह रहा कि लोग पार्टी संगठन से कम, और अपने नेताओं के प्रति अधिक समर्पित थे; संगठन - या जनता- की चिन्ता न करके वे अपने आकाओं की खुशामद में ज्यादा लगे रहे. और इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा. ऐसे ऐसे नेताओं को पार्टी में जिम्मेदारी मिली जिनका संगठन और जनता, दोनों से दूर दूर तक का कोई लगाव नहीं था.

ज़रा होल्ले होल्ले...हम भी पीछे हैं तुम्हारे!
सवाल ये उठता है कि चुनाव-
जो कि सही मायने में चुनाव हो न कि जैसे वर्तमान में वोटर/डेलीगेट पहले से तय करके प्रदेश में करवाए जाते हैं- केवल कांग्रेस के युवा संगठनों में क्यों कराये जा रहे हैं? ऐसे चुनाव मुख्य संगठन, कांग्रेस, में क्यों नहीं हो रहे हैं? मेरी समझ से इसका कारण यह है कि यदि कांग्रेस में इस प्रकार के चुनाव एकदम से कराये जाते हैं, तो शायद पूरी व्यवस्थता अस्त-व्यस्त हो जायेगी.

पंडित नेहरू के करीबी रहे अंग्रेज़ समाजवादी-इतिहासकार,
अर्नाल्ड तोय्न्बी, के अनुसार सफल परिवर्तन धीरे-धीरे, सोच समझकर, पुरानी-नई चुनौतियों से जून्झते हुए, अपनी गलतियों से सीख लेकर, उनको सुधार कर, एक-एक सीड़ी चढ़ कर, होता है. श्री राहुल गाँधी इस बात को भली-भाँती समझते हैं. इसलिए देश के विभिन्न प्रान्तों में, एक-एक कर, पार्टी के युवा संगठनों के चुनाव करवा कर, वे संभल-संभल के, धीरे-धीरे, सम्पूर्ण परिवर्तन की ओर बढ़ रहे हैं.

आखिरकार, आज के छात्र और युवा नेता ही तो कल कांग्रेस के मुख्य संगठन का नेतृत्व करेंगे: अगर संसद को ही देख लें, तो उसमें कम से कम ३४ ऐसे सांसद हैं जो कांग्रेस के युवा संगठनों में आज भी सक्रीय रूप से सदस्य हैं.

जाग, मुसाफिर, जाग ज़रा
लोकतंत्र का मतलब मात्र चुनाव से नहीं है. प्रिन्सटन विश्वविद्यालय के चिन्तक, सुनील खिलनानी, ने अपने शोध, "
ऐन आईडिया ऑफ़ इंडिया", में लिखा है कि भारतीय लोकतंत्र शायद इसलिए इतना विकसित नहीं हो पाया है क्योंकि हमने अब तक अपने लोकतंत्र को 'चुनावों के पंचवर्षीय तमाशे' से ऊपर उठने ही नहीं दिया है: चुनाव के साथ-साथ आवश्यक है, लोकतांत्रिक संस्थाओं और संस्कृति, जैसे कि संसदीय प्रणाली और बहस, का विकास, जिसका अभाव अब भी हमारे देश में है.

युवा संगठनों के चुनावों में भी इस अभाव को महसूस किया जा सकता है. पार्टी के आतंरिक चुनाव होने के कारण, छात्र नेता मुद्दों पर नहीं, बल्कि अपने-अपने व्यक्तित्व- जिसमे उनके बड़े नेताओं से सम्बन्ध और वोटों को एन-केन-प्रकारण प्रभावित करने की अन्य समस्त क्षमताएं समाहित हैं- के बलबूते पर चुनाव लड़ते हैं. ऐसे में, स्वाभाविक तौर से ऐसे छात्र जिन्हें आला नेताओं का वरदहस्त प्राप्त नहीं है, या फिर वे धन-बल से कमजोर हैं, दूसरों की अपेक्षा कमजोर पड़ जाते हैं. (इन चुनावों में सदस्यता-फीस १० रूपये है, जिसे छात्रों को स्वयं देना चाहिए, न कि किसी दूसरे को जो कि खुद चुनाव लड़ने-लड़वाने में इच्छुक हो.)

इस समस्या का समाधान एक ही है: छात्रों को अपना वोट देते समय जागरूक रहना पड़ेगा. वे ऐसे व्यक्ति को चुने जो उनके सुख-दुःख में, उनके साथ रहा हो; और जो भविष्य में भी उनके हितों की रक्षा करने के लिए संघर्ष करने में पीछे न हटे चाहे चुनौती कितनी बड़ी ही क्यों न हो. मुझे इस बात का गर्व है कि मैं ऐसे कई छात्र-नेताओं को जानता हूँ; उनके साथ मुझे काम करने के अवसर भी समय समय पर मिलते रहे हैं. लेकिन ऐसे नेताओं को मुझसे कहीं बहतर वर्तमान में छात्र जीवन के संघर्ष से गुज़र रहे युवा, जानते हैं.

ये चुनाव महज़ एक तमाशा न बन जाए, इसका उन्हें विशेष ध्यान रखना होगा.

गांधी बनाम जिन्नाह
अंत में, मैं आपका ध्यान छात्र राजनीति की दो प्रमुख विचारधाराओं की ओर आकर्षित करना चाहूंगा: स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान जब राष्ट्रपिता, महात्मा गाँधी, ने छात्रों को अपनी-अपनी पढ़ाई छोड़कर, भारत छोड़ो आन्दोलन में पूरी तरह से भाग लेने का आह्वान किया था, तब उनके विरोधी और भविष्य के पकिस्तान के क़ैद-ए-आज़म, मोहम्मद अली जिन्नाह, ने यह टिप्पणी करी थी कि छात्र पहले अपनी पढ़ाई ख़त्म करके अपने-अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ, फिर किसी आन्दोलन में भाग लें.

मैं समझता हूँ कि इन दोनों के बीच का रास्ता, सही रास्ता है- जिसे बौद्ध-चिंतन में "मध्यम मार्ग" की संज्ञा दी गई है. छात्रों को आन्दोलन करना चाहिए, लेकिन जो भी आन्दोलन वे करें, उनके अपने छात्र-जीवन- विशेषकर पढ़ाई- से सीधे सम्बंधित रहे. मसलन उनका कॉलेज फीस में वृद्धी के खिलाफ आन्दोलन करना सही है, लेकिन धान ख़रीदी में हुए प्रदेशव्यापी घोटाले की जांच की मांग करने के लिए उनका अपनी क्लास छोड़कर जेल जाना, या फिर मुख्यमंत्री के पुतले जलाना, मेरी समझ से उचित नहीं होगा. ये काम युवा कांग्रेस, और कांग्रेस के दुसरे मोर्चा संगठनों, का है, न कि छात्रों का.

छात्र राजनीति- और उसके जरिए, प्रदेश की भविष्य की राजनीति- में जो परिवर्तन का प्रयोग प्रारंभ हुआ है, उसका मैं स्वागत करता हूँ. और सभी मेरे छात्र-छात्रा नौजवान साथियों को इस प्रयोग की अपार सफलता के लिए अपनी शुभकामना देता हूँ.

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Saturday, February 28, 2009

लखीराम अग्रवाल- एक श्रद्धांजली

एक युग का शांतिपूर्ण समापन
मैं अक्सर यह सोचता हूँ कि क्या छत्तीसगढ़ के शासक दल के भीष्म-पितामह, लखीराम अग्रवाल, अपनी मृत्यु के समय संतुष्ट थे? लगभग दो बरस पहले, सन् २००७ में, जब मैं उनसे मिलने उनके खरसिया निवास पर गया था, तब वे खुश तो नहीं थे. मैं मानता हूँ कि इस नाखुशी का कुछ हिस्सा उस समय हाल ही में उनके पुत्र, अमर अग्रवाल, को राज्य मंत्रिमंडल से हटाये जाने से सम्बंधित था. (ऐसा लगता है कि इस मामले में उनसे विचार विमर्श नहीं किया गया था.) लेकिन इस नाखुशी का ज्यादा बड़ा कारण न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि समूचे भारत में
भाजपा का कांग्रेसीकरण हो जाना था. आखिरकार, समकालीन संघ साहित्य में इस बात की दुहाई बार बार पढ़ने को मिलती है. इस वाक्यांश का लाल कृष्ण अडवानी की आत्मकथा और आर.एस.एस. के मासिक मुखपत्र "पांचजन्य" (Organiser) के सम्पादकीयों में उपयोग बढ़ता ही जा रहा है.

उस मुलाकात में हम अकेले नहीं थे. इसके पहले सन् २००३ में जब मैं उनसे मिला था, तब चर्चा के विषय का अनुमान लगाने में प्रेस ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी. इस से हम दोनों को बेहद शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था क्योंकि उस नितांत अनौपचारिक बातचीत में राजनैतिक जोड़तोड़ की चर्चा कहीं थी ही नहीं. इसलिए इस बार मैंने इस मुलाकात में उपस्थित रहने के लिए प्रेस को आमंत्रित कर लिया था. बिना लागलपेट के हुई हमारी बातचीत में उन्होंने राज्य सरकार के कुछ नेताओं को
'औरंगजेब' की उपाधि देकर खलबली मचा दी थी. (यहाँ, उन्होंने बड़ी आसानी से हिन्दू समाज के पितृहंताओं के उदाहरणों की अनदेखी कर दी थी.) सर्वाधिक विस्मयजनक तो यह रहा कि किसी ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं लिखकर मेरे इस विश्वास को और दृड़ बना दिया कि यदि दोगुलेपन और अनावश्यक गोपनीयता के बजाय कूटनीति खुलेपन और स्पष्टवादिता के साथ की जाए तो वह उनती बुरी नहीं है. उस समय कांग्रेस की कोटा उपचुनाव में जीत के बाद वे भाजपा के सत्ता में वापसी को लेकर आश्वस्त नहीं थे. इसके लिए वे युवाओं में बुजुर्गों के प्रति सम्मान की कमी को सीधे-सीधे जिम्मेदार मानते थे. इसके मतलब को समझ पाना ज्यादा कठिन नहीं था.

मेरे पिता जी अक्सर मुझसे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में जनसंघ-भाजपा की इमारत को खड़े करने का श्रेय पूरी तरह से श्री अग्रवाल और उनके लम्बे समय के सहयोगी रहे कुशाभाऊ ठाकरे को जाता है. इन दोनों ने उस युग की कांग्रेस की अजेय मशीनरी की पूरी शक्ति के खिलाफ काम करते हुए, हर संभव कठिनाइयों से जूझते हुए, नए रंगरूटों की तलाश में राजमाता ग्वालियर द्वारा दी गयी एक टूटी-फूटी खटारा जीप में अविभाजित मध्य प्रदेश के सुदूर अंचलों का दौरा करके, वर्त्तमान सत्ताधारी दल की नींव रखी. प्रश्न अब यह उठता है कि क्या उनकी पार्टी ने उन्हें अंततः छोड़ दिया था?

ऐसा लगा कि वे ऐसा ही सोचते थे. लेकिन यह अलगाव व्यक्तिगत से कहीं अधिक सैद्धांतिक था. अपने अन्य दक्षिणपंथी समकालीन सहयोगियों की ही तरह उन्होंने कांग्रेस के तथाकथित वंशवाद से ग्रस्त गलते हुए और उनके अनुसार अंततः निरर्थक ढांचे के विकल्प के निर्माण के ध्येय से अपनी लम्बी कष्टपूर्ण जीवन यात्रा शुरू की थी. इसमें उन्हें सफलता भी मिली. लेकिन बेहद विडम्बना पूर्ण. छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में जो विकल्प सत्ता में आया, वह उसी संस्कृति का एक दूसरा स्वरुप है, जिसे बदलने के लिए उन्होंने ता-उम्र जद्दो-जहद की थी.

सत्ता की प्रवृत्ति के तीन उदाहरण
इस सन्दर्भ में चैरमैन माव की क्रांति पर प्रोफेसर तान चुंग के ञानविषयक मूल्यांकन का ख़याल आता है. क्रांति के पहले और क्रांति के बाद की चीन की राजनीति की संरचना का विश्लेषण करते हुए उन्होंने पाया कि नवनिर्मित पोलितब्यूरो के सदस्य करीब-करीब उन्ही घरानों से थे जिन्होनें पूर्वर्ती मांचू सम्राटों को शासनाधिकारी दिए थे.

और पास में देखे तो मुझे याद है कि मेरे पिता जी के एक मित्र ने
रायपुर में आयोजित विभिन्न मुख्यमंत्रियों के स्वागत समारोहों के कुछ फोटो देखाए थे. पहली नज़र में उन पीले पड़ चुके चित्रों में कुछ भी विशेष रूप से उल्लेखनीय नहीं था. गौर करने पर मुझे पता लगा कि सभी चित्रों में केवल मुख्यमंत्री का चेहरा बदला है, उनके आसपास ऊर्जावान याचना की विभिन्न मुद्राओं में तैनात लोग और उनकी भावभंगिमाएं सभी फोटो में बिलकुल एक जैसे हैं. लगभग दो दशकों के अंतराल में लिए गए विभिन्न चित्रों को देखकर ऐसा लगा जैसे शाश्वत और निरंतर स्वागतकर्ताओं के इस ऐतिहासिक समूह ने किसी जादू के बल पर समय के साथ-साथ आयु को ययाति की तरह जीत लिया है.

इस चिरयुवा प्रजाति के बचाव में मैं हरयाणा के एक पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे के द्वारा मुझे सुनाया गया एक छोटा सा वाकया प्रस्तुत करना चाहता हूँ. पहली बार कार्यभार ग्रहण करने के बाद जब उनके पिता सुबह सैर पर निकले, तो उनके साथ एक ऐसा आदमी लग लिया जो उनसे भी पहले यह जान जाता था कि वे क्या चाहते हैं. स्वाभाविक रूप से समय के साथ-साथ यह साथ गहरी दोस्ती में बदल गया. उनके शब्दों में ही कहें तो वे लोग दो जिस्म एक जान हो गए थे. फिर जब वे सत्ता से हटे, तो इस आदमी का कहीं अता-पता ही नहीं चला. सालों बाद वे फिर से सत्ता में लौटे. और फिर सुबह की सैर के समय उन्होंने उसी व्यक्ति को अपने साथ पाया. पीड़ा और विस्मय के साथ उन्होंने उससे पूछा कि "मैं सोचता था कि हम लोग बहुत अच्छे मित्र थे. इतने साल तुम कहाँ चले गए थे?"

बेहद भोलेपन से उस व्यक्ति ने कहा:
"चला गया था? चले तो आप गए थे, हुज़ूर. मैं तो यहीं था."

असहज मुखिया
उपरोक्त तीनों उदाहरण सत्ता की वास्तविक प्रकृति पर रौशनी डालते हैं. संक्षेप में कहें तो सत्ता में ऐसी ईश्वरीय-क्षमता है कि किसी को भी अपनी छवी में ढ़ाल लेती है. सत्ता में आने के बाद भाजपा प्रलोभनों के मंत्रमुग्ध कर देने वाले इस सम्मोहन से नहीं बच सकी. उदाहरण स्वरुप, कई मायनो में स्वर्गीय प्रमोद महाजन का किसी भी अन्य जीवित कांग्रेसी से अधिक कांग्रेसीकरण हो गया था. कांग्रेसी सत्ता में बने रहने को एक कला मानते हैं; लेकिन श्री महाजन ने उसे एक अत्याधुनिक विज्ञान में तब्दील कर दिया, और इस प्रक्रिया में देश में राजनीति करने के तौर-तरीकों को हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया. (छत्तीसगढ़ में भाजपा की सत्ता में वापसी का श्रेय इस बदलाव को ही जाता है.)

श्री अग्रवाल ने इस बदलाव की आहट को भली-भाँती समझ लिया था. सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ पुराने नेताओं के साथ-साथ आर.एस.एस. के सरसंघचालकों, केशव हेडगेवार और माधव गोलवलकर, के पुराने विचारों और कार्यपद्धति को हाल ही में बनी भाजपा की राज्य सरकारों के मंत्रियों द्वारा दरकिनार किया जाना था, जिसे समकालीन राजनैतिक समीक्षक भाजपा और संघ के बीच बढ़ती दूरियों की संज्ञा देतें हैं. आखिर, लखीराम जी कैसे भूल सकते थे कि उनका स्वयं का बेटा भी एक मंत्री है?

विशेष रूप से यह आखिरी पहलू उन्हें परेशान करता था. एक बार उन्होंने मुझे बताया कि जब भी पार्टी की बैठकों में संभावित उम्मीदवार के रूप में उनके बेटे के नाम पर विचार किया जाता था, तो वे चुपचाप उस कमरे से बहार निकल जाते थे ताकि निर्णय पर किसी तरह का प्रभाव न पड़े. उनका मानना था कि अगर उनके बेटे को पार्टी कि टिकिट दी जाती है, तो उसकी योग्यता के कारण न कि खून के रिश्ते के कारण. स्पष्ट रूप से वे वंशवादी होने के आरोपों से बचना चाहते थे. आखिरकार, उनके लिए सारी ज़िन्दगी के परिश्रम का अर्थ अपने वंश के अभ्युदय से कहीं बहुत अधिक था. मानो वो घोषणा करना चाहते थे कि
"कोई यह नहीं कह सकता कि मैंने सब कुछ अपने बेटों के लिए किया."

गैर-वंशवादी
मेरे दृष्टिकोण में इस सम्बन्ध में उनकी आशंकाएं पूरी तरह से बेबुनियाद थीं. वास्तव में उनके केवल एक बेटे ने राजनीति में प्रवेश किया और एक ऐसे क्षेत्र से लगातार जीत हासिल की जहाँ उनके पिता का कोई ज्यादा प्रभाव नहीं था; एक ऐसा क्षेत्र जो पहले कांग्रेस का गढ़ माना जाता था. बाकी बेटे परिवार के गुडाखू व्यवसाय में लगे रहे. उनकी जीवन भर की महनत से यदि किसी परिवार को लाभ मिला तो वह उनका निजी परिवार नहीं बल्कि वह परिवार था जिसे आर.एस.एस. के विचारकों ने 'संघ परिवार' की संज्ञा दी है. संघ के लिए बेहद उपयोगी साबित हुई अपनी पुस्तक "हम और हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा" (We or our Nationhood Defined) में श्री गोलवलकर ने लिखा है कि
"संघ समाज में संगठन नहीं, समाज का संगठन है."

श्री लखीराम को छत्तीसगढ़ में संघ परिवार के अविवादित मुखिया बने रहना का पूरा अधिकार था. आखिरकार, यदि उन्होंने यहाँ के दूरस्त अंचलों की यात्रा नहीं की होती-
जशपुर जाकर वहां के युवा राजकुमार, दिलीप सिंह जूदेव, को भाजपा से जुड़ने के लिए तैयार नहीं किया होता या कवर्धा जाकर वैसे ही एक और युवा आयुर्वेदिक चिकित्सक, डॉक्टर रमण सिंह, को आर.एस.एस. की शाखाओं में शामिल होने के लिए प्रेरित नहीं किया होता- तो भाजपा कभी सत्ता में नहीं आ पाती. लेकिन उनके यही चेले अपने गुरु के खिलाफ होते रहे.

मैंने पहली बार इसे तब महसूस किया जब सन् २००१ में १२ भाजपा विधायकों ने कांग्रेस में शामिल होने का फैसला लिया, जो कि भारतीय इतिहास में अपनी तरह का पहला और आखिरी उदाहरण है. सबसे ज्यादा चौकाने वाली बात तो यह थी कि उनमे से अधिकतर लोगों ने अपने दल-बदल का सबसे प्रमुख कारण जो बताया, वह केवल दो शब्दों का था: लखीराम अग्रवाल. उनकी शिकायत थी कि पार्टी के विधायक होने के बावजूद जब वे अपने गुरु के पाँव छूते थे, तब वे उनकी तरफ देखने की जरूरत भी नहीं समझते थे. इस से इन विधायकों को बेहद पीड़ा होती थी. जब मैंने 'लखी अंकल' को यह बताया, तो वे यह कहकर हंस दिए कि
"यदि ऐसा था तो उन्हें मेरे पाँव छूने की जरूरत नहीं थी."

जिसे लोगों ने बेपरवाह घमंड समझा, वह वाकई में एक स्वनिर्मित व्यक्ति का आत्म-सम्मान था. उनकी दुनिया में उन्हें किये जा रहे अभिवादनों का उत्तर देने या स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं थी. शायद वे इन अभिवादनों को आदर का एक ऐसा फर्जी प्रदर्शन मानते थे जो उनकी कृपा से राजनैतिक अस्तित्व में आये लोगों के द्वारा और ज्यादा लाभ लेने की कोशिश मात्र थी. उनके अनुमान से यदि वे लोग वाकई में स्वीकरोक्ति की अपेक्षा रखते थे, तो यह नितांत हास्यापद था.

मैं इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हूँ. यह अच्छी राजनीति भी नहीं है. मैं एक ऐसे परिवार से हूँ जिसका उपकार करने और उपकार लेने का एक लंबा इतिहास है. उपकार के बदले में आभार की अपेक्षा रखना- उसे अपना अधिकार समझना- अव्यावहारिकता का परिचायक है. वास्तविकता तो यह है कि अक्सर लोग उनको किये गए उपकार को इश्वर-प्रदत्त मानने लगते हैं; कभी-कभी वे उसे अपनी महनत का फल भी समझ लेते हैं. समकालीन मूल्यों को स्वीकार न करके श्री अग्रवाल अपने उस भोलेपन का सबूत दिया जो उनकी पीढ़ी के लोगों में असामान्य नहीं है. इस प्रक्रिया में उनके अपने कई चेलों से सम्बन्ध बिगड़ गए, जो आज सरकार और संगठन, दोनों में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं.

व्यक्तिगत-राजनीतिज्ञ
हम में से जिन लोगों को आगे लाने में उनका कोई योगदान नहीं था, या जिनपर उनके उपकार नहीं थे, उनके प्रति वे संकोच में डाल देने की सीमा तक विनम्र थे. राज्य सभा के मेरे पिता जी के लम्बे समय तक सहयोगी होने के बावजूद, उम्र में मुझसे लगभग आधी सदी बड़े होने के बावजूद, और हर मायने में मुझसे बेहतर होने के बावजूद, जब भी मैं उनसे मिलता था, वे मुझे बेहद आदर से
"अमित जी" कहकर पुकारते थे.

मैं मनाता हूँ की वे एक अच्छे समालोचक भी थे. एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि वे सोचते हैं कि संभवतः मेरे पिता जी मध्य प्रदेश के सुविख्यात मुख्यमंत्री और उनके सबसे पुराने राजनैतिक गुरु, अर्जुन सिंह, से भी बेहतर प्रशाषक थे. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि मेरे पिता जी को महान बनने से उनकी दूसरों से सलाह-मशविरा न करने की प्रवृत्ति ने रोका. मैं आज यह नहीं कह सकता कि मेरे पिता जी की कार्यप्रणाली के सम्बन्ध में उनका यह दृष्टिकोण कितना सही था. लेकिन शायद श्री अग्रवाल के सुप्रसिद्ध प्रचार तंत्र से प्रभावित जनमानस की धारणा तो ये ही है. हालांकि इस सलाह की सदाशयता से कोई इनकार नहीं कर सकता है. आखिरकार, सलाह-मशविरा करना स्वयं में महत्त्व रखता है; उस से सहमती होना या न होना दीगर बात है.

किसी भी स्थिति में मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ कि राज्य का कोई अन्य भाजपा नेता अपने किसी राजनैतिक प्रतिद्वंदी के बारे में इस तरह की टिपण्णी करे, और उसके बेटे को सत्ता में वापसी के लिए सकारात्मक सलाह देने की सीमा तक चला जाए. यह शायद इसलिए था क्योंकि श्री अग्रवाल मेरे पिता जी को सिर्फ एक ऐसा विरोधी नहीं मानते थे जिसे लड़कर नेस्तनाबूत कर देना है बल्कि मैं मानता हूँ कि वे मेरे पिता जी को एक साथी और एक मित्र की तरह समझते थे. क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का अधिकाँश हिस्सा संघर्षों में बिताया था, अतः वे सत्ता संघर्ष की उस उहापोह से दूर रहते थे जो
"सत्ता परमोधर्म" की नीति पर चलने वालों के अंतर्मन में उत्पन्न होने वाली निहायत ही अहमकाना असुरक्षा को जन्म देती है.

इसलिए उनकी दुनिया में
करो या मरो किस्म के सत्ता के कुटिल खेलों के लिए जगह नहीं थी. बल्कि जिन लोगों से वे सहमत नहीं रहते थे, उनसे भी परिचय और मेल-मुलाकात की गुंजाइश बनी रहती थी. उनके लिए राजनीति कभी व्यक्तिगत रंजिशों का रूप नहीं लेती थी. (उनसे कुछ कम लेकिन कुछ हद तक यह गुण उनके पुत्र को भी विरासत में मिला है.) इस से भी बड़कर वे व्यक्तिगत संबंधों को राजनीति से ऊपर रखते थे. उनकी बहु के अंतिम-संस्कार के समय पिछले बरस उन्होंने मुझसे कहा था कि उनके मित्र, श्री ठाकरे, के निधन के बाद पार्टी मीटिंग या अन्य किसी कारण से भी उनका दिल्ली जाने का मन नहीं होता है. उनकी पार्टी के नई दिल्ली के अशोक रोड स्थित राष्ट्रीय मुख्यालय में उन्हें अपने दिवंगत मित्र की बेहद याद आती है क्योंकि श्री ठाकरे ने संगठन के लिए समर्पित होकर वहां एक ब्रह्मचारी के रूप में एक ही कमरे में अपना अधिकाँश जीवन बिता दिया, शायद इसलिए क्योंकि उनके पास जाने के लिए कोई दूसरा ठौर या कारण नहीं था.

यह कहा जाता है कि किसी व्यक्ति के जीवन की सार्थकता का अनुमान उसके अंतिम-संस्कार में सम्मिलित लोगों से लगाया जा सकता है. श्री अग्रवाल एक अतूलनीय संगठक होने के अलावा न तो किसी पद में थे, न ही किसी विषय के विशेषज्ञ या शिक्षाशास्त्री या कोई बड़े कलाकार थे. इस के बावजूद उनकी पार्टी और उसके बाहर के भी, और वे भी जिन्हें राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, ऐसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के लोग, उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए आये थे, जिनके जीवनों को अपने कार्यों से उन्होंने छुआ था, और जिन्हें उन्होंने राहत पहुंचाई थी. वे लोग मुख्य रूप से इसलिए आये थे क्योंकि वे उन्हें जानते थे और उनसे स्नेह करते थे, व्यक्तिगत रूप से.

दीर्घकालीन व्यक्तिगत संबंधों के लिए सैधांतिक या राजनैतिक रूप से एकमत होना अनिवार्य नहीं है.
राजनैतिक विरोधी भी अच्छे व्यक्तिगत मित्र हो सकते है. हमारी पीढ़ी के राजनीतिज्ञों को श्री अग्रवाल द्वारा दी गयी यह सबसे महत्वपूर्ण सीख है. छत्तीसगढ़ के लिए यह उनकी सबसे स्थायी विरासत भी है. 
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Wednesday, January 21, 2009

छत्तीसगढ़ २००८: हम क्यों हारे?

पिछले महीने का अधिकांश हिस्सा एक दूसरे पर उँगलियाँ उठाने में ही बीत गया. एक पार्टी की तरह हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए था कि हमारे हार के लिए कौन से कारक उत्तरदायी हैं लेकिन हमने इस बात पर ध्यान दिया कि किस पर आरोप मड़े जा सकते हैं. ऐसी सोच के द्वारा अपने राजनैतिक विरोधियों से हिसाब तो चुकता किया जा सकता है लेकिन साथ ही साथ इससे आगामी लोक सभा चुनावों में पार्टी की संभावनों पर विपरीत प्रभाव भी पड़ रहा है. मेरे दृष्टिकोण से प्रमुख रूप से पाँच कारक हैं (बस्तर में पार्टी का सफाया, सतनामियों की संगठन में उपेक्षा, राकपा से गठबंधन, टिकट वितरण में देर, और "जोकोछो" नीति):

अ. बस्तर में पार्टी का सफाया
पहला और सबसे प्रमुख कारण बस्तर के आदिवासी अंचल में हमारा पूरी तरह से सफाया हो जाना है, जहाँ हम बारह सीटों में से ग्यारह में हार गए. इसके दो कारण हैं. एक, गलत उम्मीदवारों का चयन. उदाहरण स्वरुप इन चार मामलों पर गौर करें:

१. एक महिला १९९० से लगातार चुनाव हार रही है. जिन चार चुनावों में उन्हें टिकट दी गई उनमें से दो में उनकी जमानत भी जप्त हो गई. उनके सगे भाई अपने गाँव में सरपंच चुनाव हार गए; जनपद चुनाव में उनकी बहु की भी जमानत जप्त हो गई. इन सब के बावजूद उन्हें पांचवी बार कांग्रेस के उस दावेदार की टिकट काट कर उम्मीदवार बनाया गया, जो पिछला चुनाव मात्र १००० वोटों से हारा था, और चुनाव हारने के बावजूद क्षेत्र में विपक्ष में सक्रिय भूमिका निभाता रहा.
२. नारायणपुर विधान सभा क्षेत्र में भानपुरी, मर्देपार और नारायणपुर, ये तीन ब्लाक आते हैं. भानपुरी और मर्देपार में १,३०,००० से अधिक मतदाता हैं; नारायणपुर इन दोनों ब्लाकों से १५० किलोमीटर से अधिक की दूरी पर हैं, और घने जंगलों में नक्सली प्रभावित क्षेत्र में हैं जहाँ सिर्फ़ १३००० मतदाता हैं. हमने नारायणपुर के व्यक्ति को टिकट दी.
३. बसपा और भाजपा के बाद हाल ही में वापस लौटे एक आदतन दल बदलू नेता जिन्होनें दल बदल के इस दौर में लड़ा गया हर चुनाव हारा है, उनकी दिल्ली में रहने वाली ऐसी बिटिया को टिकट दे दी गई जो स्थानीय बोली का एक शब्द भी नहीं बोल सकती थी.
४. एक सीट में जैन मतदाताओं की संख्या सिर्फ़ ५०० है, हमने यह जानते हुए भी कि भाजपा का उम्मीदवार भी इसी समुदाय से है, एक जैनी को उम्मीदवार बनाया.


यह बेहद स्पष्ट है कि इन चारों मामलों में हमारा चयन तर्क से परे था. यही बात कम से कम दो और विधान सभा क्षेत्रों, कोंडागांव और केशकाल, के बारे में भी कही जा सकती है, जहाँ जाने पहचाने चहरों की जगह पार्टी ने तुलनात्मक रूप से अनजान व्यक्तियों को उम्मीदवार बनाना पसंद किया. यही कारण रहा की उत्तर बस्तर (जगदलपुर, नारायणपुर और कांकेर जिलों) में हमें हार का मुख देखना पड़ा.

दक्षिण बस्तर में हार का कारण सरकार समर्थित सलवा जुडूम मुहीम बनी, जिसके कारण ७०००० से अधिक आदिवासियों को लगभग ६०० गांवों से उजाड़कर सड़क किनारे बने २६ कैम्पों में लाकर अमानवीय हालत में रहने के लिए मजबूर कर दिया, और हजारों निर्दोष आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया गया. ८ जुलाई २००६ को मैंने सलवा जुडूम के बारे में अपनी टिप्पणी में लिखा था:

"सलवा जुडूम का आदिवासी हितों से कोई लेना-देना नहीं है और इसके पीछे तीन प्रमुख कारक काम कर रहे हैं:
* राजनैतिक: चुनाव के समय खाली कराय गए गांवों में कोई मतदान केन्द्र नहीं खुलेंगे. इन ६-७ 'कोंशंत्रेशन कैम्पों' की सुरक्षित सीमा के भीतर मतदान केन्द्र बनाए जायेंगे. (अंततः यह संख्या बढ़कर २६ हो गयी) ऐसे स्वतंत्र और निष्पक्ष वातावरण में कराये गए चुनाव का परिणाम जान ने के लिए किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नही हैं. सोचिये, यदि नाज़ियों के द्वारा यहूदियों के लिए बनाए गए यातना शिविरों में मतदान कराया गया होता तो क्या हिटलर की नेशनल सोशिलिस्ट पार्टी ने चुनावों में एक तरफा जीत हासिल नहीं की होती? हिटलर ने तो इन शिविरार्थियों को वोट देने के काबिल नहीं समझा था, लेकिन यह सरकार आदिवासियों को अपने एक वोटबैंक के अलावा कुछ और समझने के लिए तैयार ही नहीं है. सलवा जुडूम इस वोटबैंक को भुनाने का सबसे सुनिश्चित तरीका है.

* सांस्कृतिक: शिविरों के नियंत्रित वातावरण के भीतर बड़ी संख्या में मौजूद आदिवासी संघ परिवार के लिए रात दिन काम करके अपने सांचों में ढले आदिवासियों के ऐसे कथित सुसंस्कृत नमूने तैयार करने का सुअवसर देतें हैं जिन्हें बार-बार हर बार यह बताया जाता है की वे झूठे देवताओं की पूजा कर रहे हैं, दूषित भोजन खा रहे हैं, पुरानी बेतुकी परम्पराओं और प्रथाओं का पालन कर रहे हैं. इस प्रकार उन्हें अपनी पहले की जीवन पद्धति को पाशानकालीन और क्रूर बताया जाता है और इस प्रकार धीरे धीरे लेकिन सुनिश्चित तरीके से वे लोग आर.एस.एस के फर्जी-हिंदुत्व का एक हिस्सा बनने लगते हैं. इस प्रकार भौगोलिक और राजनैतिक से कहीं अधिक बढ़कर आदिवासियों का इन शिविरों में रहने के कारण सान्सक्रैतिक विस्थापन जो मुझे बेहद परेशान करता है. इस प्रकार कैम्पों में रहने वाले आदिवासियों को स्थायी रूप से एक हीन भावना का झूठमूठ में शिकार होना पड़ेगा और एक प्रकार की कुत्तों जैसी ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जहाँ उन्हें हमेशा यह बताया जायेगा की उन्हें क्या करना चाहिए, क्या महसूस करना चाहिए और क्या सोचना चाहिए. इस प्रक्रिया में आदिवासियों की स्वतन्त्रता बली चढ़ा दी गई है.

* आर्थिक: आदिवासियों को ध्यान में रखकर बनायी गई अन्य सरकारी योजनाओं की तरह सलवा जुडूम के शिविरों ने एक अलग तरह के उद्योग को जन्म दिया है. सरकारी खजाने से रोज खर्च किए जाने वाले करोड़ों रुपये ७०००० आदिवासियों के भोजन, स्वास्थ, शिक्षा और आवास की जगह, दलालों की मंडली द्वारा अपने प्रशासनिक और राजनैतिक संरक्षकों की मिलीभगत से उड़ाए जा रहे हैं. सीधे सीधे शब्दों में कहें तो इतने विशाल आकर्षक और लाभदायी व्यवसाय को समाप्त करना इनमें से किसी के भी हित में नहीं है."

अब मैं कुछ कुछ कासान्द्रा की तरह महसूस करने के लिए मजबूर हूँ, जो भविष्य को जानने के बावजूद उसके बारे में कुछ भी न कर पाने के लिए अभिशापित थी. सच्चाई तो यह है कि सलवा जुडूम के कारण भाजपा को १९५२ में आम चुनाव शुरू होने के बाद से पहली बार दक्षिण बस्तर में पांव जमाने का मौका मिल सका. एक ऐसे क्षेत्र में जहाँ हमेशा चुनावी संघर्ष कांग्रेस और वामपंथियों के बीच होता रहा है, पहली बार भाजपा ने तीन में से दो सीटें सीधे सीधे जीत ली हैं और तीसरी सीट में भी हम उन्हें सिर्फ़ १९० वोटों से हरा सके. सलवा जुडूम के मुद्दे पर कांग्रेस ने अपनी स्थिति स्पष्ट करने से परहेज किया. कांग्रेस विधायक दल के नेता सलवा जुडूम की मुहीम का नेतृत्व कर रहे थे जिसे राज्य और केन्द्र सरकारों, दोनों का समर्थन प्राप्त था, जबकि मेरे पिता के नेतृत्व में पार्टी के निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का एक बड़ा समूह ऊपर बताये गए कारणों से इसके विरोध में था. मेरे दृष्टिकोण में हमें इस दीर्धकालीन अस्पष्टता की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है.

मेरा यह मानना है कि बस्तर का संघर्ष चुनावों से कहीं आगे बढ़कर आदिवासी-भारत की आत्मा के लिए संघर्ष है. एक ओर भाजपा और उसके सहयोगी सरस्वती शिशु मंदिरों, एकल विद्यालयों, और वनवासी कल्याण आश्रमों के वृहद् नेटवर्क के द्वारा राज्य प्रशासन के सक्रिय समर्थन के बल पर बस्तर के दूरस्त अंचलों में भी पूर्णकालिक कार्य कर रहे हैं जबकि हमारे पास इसका मुकाबला करने के लिए कुछ भी नहीं है. सही अर्थों में तो हमने उन्हें उनकी मनमानी करने के लिए मैदान खाली छोड़ दिया है. इन सबके बावजूद हमारा अभी भी संघर्ष में मौजूद रहना आश्चर्यजनक है. आखिरकार १२ में से ३ सीटों में हम बहुत कम अन्तर से हारे. अंतागढ़ में ९० वोटों से (मुख्य रूप से मतगणना के दौरान की गई धांधली के कारण), बस्तर में १२०० वोटों से, और कोंडागांव में २७७० वोटों से. मेरे लिए इसका अर्थ यह है कि इन विधान सभा क्षेत्रों में लोग वाकई में बदलाव चाहते थे लेकिन हम उन्हें समुचित विकल्प उपलब्ध कराने में नाकाम रहे.

बस्तर में हमारी लगातार दूसरी हार से मिला सर्वाधिक महत्वपूर्ण सबक यह है कि लड़ाई को शिक्षा और संस्कृति के उन क्षेत्रों में ले जाने की जरूरत है जहाँ भाजपा-आर.एस.एस.-विहिप और उनके सहयोगियों को खुली छूट मिली हुई है. अगर यह लड़ाई जल्द ही शुरू नहीं की गई तो हम लोग घृणा में विश्वास रखने वाली साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों बस्तर और शायद पूरे आदिवासी-भारत को खो बैठेंगे.

ब. सतनामियों की उपेक्षा
हमारी हार के लिए दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक पार्टी संगठन के भीतर सतनामी समुदाय की की गई घोर उपेक्षा के परिणाम स्वरुप बसपा का बढ़ता हुआ प्रभाव है, जिसे वर्त्तमान में की जा रही हार की राजनैतिक समीक्षा में जानबूजकर नज़रन्दाज़ किया जा रहा है. जबकि २००३ के विधान सभा चुनावों में सतनामी समुदाय ने कांग्रेस का जमकर साथ दिया था, जिसके परिणाम स्वरूप बसपा का मत प्रतिशत १९९८ के ५.६५% से घटकर २००३ में ४.४% हो गया था; बसपा ने जिन ५४ सीटों में चुनाव लड़ा था उनमें से ४६ में उसके उम्मीदवारों की जमानत जप्त हो गई थी. इसके बावजूद २५,००,००० संख्या वाले इस समुदाय को राज्य, जिला या ब्लाक स्थर पर पार्टी संगठन में विगत ५ वर्षों में कोई प्रतिनिधित्व देने की आवश्यकता भी महसूस न करना खेद का विषय है.

पथरिया ब्लाक का उदाहरण लें, जहाँ ४ बरस पहले ब्लाक कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष का निधन हो जाने पर स्थानीय विधायक ने सतनामी समुदाय के एक सम्मानित व्यक्ति का नाम इस पद को भरने के लिए प्रस्तावित किया लेकिन वह पद अभी भी रिक्त है. इसी तरह एक भी जिला कांग्रेस कमिटी अध्यक्ष सतनामी नहीं है; प्रदेश कांग्रेस कमिटी में भी उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया. कांग्रेस के चारों मोर्चा संगठनों (सेवा दल, युवा कांग्रेस, एन.एस.यु.आई. और महिला कांग्रेस) के राज्य प्रमुखों में से एक भी इस समुदाय का नहीं है. इस बेहद दुर्भाग्यजनक प्रवृत्ति का परिणाम सतनामियों का बसपा की ओर पलायन रहा है.

इस पलायन के परिणाम कांग्रेस के लिए बेहद घातक सिद्ध हुए हैं. बसपा ने जिन १७ सीटों में ८००० से अधिक वोट लिए, उनमे से कम से कम ११ सीटों में बसपा के उम्मीदवार हमारी पार्टी की बेहद कम मतों से पराजय के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार रहे हैं: बिलासपुर जिले में मुंगेली (अ.जा), तखतपुर, बिल्हा, बेलतरा और मस्तुरी (अ.जा); दुर्ग जिले में नवागढ़ (अ.जा); जांजगीर जिले में अकलतरा, जांजगीर-चांपा, पामगढ़ (अ.जा) और चंदरपुर; तथा रायपुर जिले में बलोदा बाज़ार. मुझे यह कहने में कोई परहेज नहीं है कि यदि इस प्रवृत्ति को तत्काल नहीं रोका गया तो आगामी लोक सभा चुनावों में सतनामी समुदाय कांग्रेस को पूरी तरह छोड़कर बसपा के साथ जा सकता है.

स. राकपा से गठबंधन
तीसरा प्रमुख कारक पार्टी का छत्तीसगढ़ में राकपा जैसी नेत्रित्वविहीन और कार्यकर्ता-विहीन पार्टी के साथ गठबंधन रहा. स्थानीय पार्टी इकाइयों के जबरदस्त विरोध के बावजूद हमने ३ सीटें राकपा के लिए छोड़ दी, जिनमे से पहली हमने जीती थी और वहां से वर्त्तमान विधायक कांग्रेस का था (मनेन्द्रगढ़); दूसरी, सामरी जहाँ से उनके उम्मीदवार की सिर्फ़ कुछ १०० वोट पाने के बाद जमानत जप्त हो गई थी; और तीसरी, उनके प्रदेश अध्यक्ष की, जिसकी पिछले चुनाव में अन्तिम समय में कांग्रेस टिकट कट गयी थी, और वह चुन लिया गया था. यह उम्मीदवार बेहद आसानी से कांग्रेस टिकट पर चंदरपुर सीट से चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो सकता था.

इस गटबंधन की घोषणा के साथ ही हमने इन तीनों सीटों को भाजपा को उपहार में दे दिया. और ज्यादा बुरी बात यह है कि हमारे इस सहयोगी दल का वास्तविक गठबंधन कांग्रेस के साथ नहीं वरन भाजपा के साथ नज़र आता है. निम्न उदाहरणों से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जायेगा:

१. मनेन्द्रगढ़ सीट मुख्य रूप से चिरमिरी और मनेन्द्रगढ़, इन दो शहरों से मिलकर बनी है. क्योंकि दोनों ही शहर नए जिले का मुख्यालय बनना चाहते थे, अतः उनके बीच एक पुरानी प्रतिद्वंदता है. ७२००० मतदाताओं वाला चिरमिरी शहर २१००० मतदाताओं वाले मनेन्द्रगढ़ से चार गुना बड़ा है. इन परिस्थितियों में उम्मीदवार को स्वाभाविक रूप से चिरमिरी से होना चाहिए. इस गणित को पूरी तरह नज़रन्दाज़ करते हुए राकपा ने मनेन्द्रगढ़ के रहने वाले को अपना उम्मीदवार बनाया जबकि भाजपा के चिरमिरी के एक बेहद सदाहरण उम्मीदवार ने आसानी से चुनाव जीत लिया.
२. इसी तरह सामरी एक जनजाति क्षेत्र है जहाँ लगभग ७५% मतदाता कंवर समुदाय के हैं जबकि उरांव मात्र १०% हैं. उरांव में भी इसाई-उरांव की संख्या ५% से भी कम है. इस सीट को जीतने की इच्छुक किसी भी पार्टी को अपना टिकट एक कंवर को ही देना था. लेकिन फिर से राकपा ने इन सारी बातों को दरकिनार रख अपना टिकट एक इसाई-उरांव को दिया. भाजपा को मिले ५०००० वोटों के मुकाबले उसके उम्मीदवार को मात्र ८००० वोट मिले और वह चौथे स्थान पर रहा.
३. गठबंधन के नियमों के ख़िलाफ़ जाकर राकपा ने कम से कम १० सीटों से अपने उम्मीदवार खड़े किए जिनमे से चार में हम हार गए. इस प्रकार इस गठबंधन का जो थोड़ा बहुत लाभ कांग्रेस को मिल सकता था, वो भी नहीं मिला.


जिस क्षण इन तीनों उम्मीदवारों की घोषणा की गई, इन सीटों पर भाजपा की विजय उसी समय तय हो गई थी. इस गठबंधन का विरोध करते हुए २५ अक्टूबर २००८ को एक विस्तृत नोट के अंत में मेरे पिता ने लिखा: 
"उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए यह मेरा- और राज्य के अधिकांश जमीनी कार्यकर्ताओं का- दृढ़ अभिमत है की छत्तीसगढ़ में किसी भी अन्य राजनैतिक दल से गठ्बंदन की कोई आवश्यकता नहीं है. अगर हम सभी ९० सीटों पर चुनाव नहीं लड़ते ओर भाजपा सभी ९० सीटों पर लड़ती है तो इससे हमारी कमजोरी ओर लड़ाई शुरू होने के पहले ही हार स्वीकार कर लेने का संदेश जायेगा."

डी. टिकट वितरण में देर
चौथा कारक सिर्फ़ छत्तीसगढ़ के ही लिए लागू नहीं होता है. पूरे देश में हमारी पार्टी इसी तरह की व्यवस्था से चलती है. आलाकमान की चुनाव से कम से कम दो माह पहले टिकटें तय कर देने की मंशा के विपरीत प्रत्याशियों की घोषणा अन्तिम क्षणों में ही की गई. ५० दिन ओर ५० रातों तक चले अंतहीन ओर ज्यादातर मुद्दाविहीन चर्चाओं के बाद ही हम अन्तिम निर्णय पर पहुँच सके, जिसका अर्थ है की हर विधान सभा सीट पर हम लोगों ने औसत १५ घंटों की चर्चा की!

पार्टी के राज्य के नेता, सभी ९० सीटों के टिकटार्थी ओर उनके समर्थक, इस दौरान दिल्ली में ही जमे रहे, ओर इस महत्वपूर्ण समय में हमने मैदान को भाजपा के लिए तब खुला छोड़ दिया जब राज्य में विधान सभा चुनावों की अधिसूचना जारी हो चुकी थी.

अपनी-अपनी टिकटों के लिए इतनी लम्बी लड़ाई से थक चुके हमारे प्रत्याशियों के पास चुनाव प्रचार के लिए १२ दिन से भी कम समय बचा था. इस बीच भाजपा ने ८ हेलीकॉप्टरों के द्वारा अपने स्टार प्रचारकों ओर लगभग पूरी राष्ट्रीय कार्यकारणी को चुनाव प्रचार में झोंक दिया जबकि हमारे लोग दिल्ली की ठंडी सर्दियों में ठिठुरते हुए आक्रोशित हो रहे थे. यह तो सीधे-सीधे काफ्का की किताबों से उठाया हुआ एक दृश्य प्रतीत होता है.

ई. जोकोछो नीति
सबसे अंत में मैं इस हार के लिए जोकोछो नीति को बड़ी हद तक जिम्मेदार मानता हूँ. इस नीति को दिसम्बर २००३ में हुए चुनावों में आज से ठीक ५ बरस पहले हुई हमारी हार के बाद दुर्ग के एक वरिष्ट नेता की पहल पर लागू किया गया था, जिनकी स्वयं की चुनावी क्षमता (या इस क्षमता की कमी) किसी से छुपी हुई नहीं है. यह नीति अभी तक जारी है.

सीधे-सीधे कहें तो जोकोछो नीति का अर्थ है कि छत्तीसगढ़ में पार्टी के सारे पद "जोगी को छोड़कर" (जो-को-छो) किसी को भी दिए जाएँ. परिणाम स्वरुप मेरे पिता, या उनके सहयोगी माने जाने वाले किसी भी व्यक्ति को, ब्लाक, जिला और राज्य स्थर पर पार्टी संगठन में कोई पद नहीं दिया गया. २००४ में हुए लोक सभा चुनावों में प्रदेश के एक मात्र कांग्रेस सांसद होने के बावजूद उन्हें अपने लोक सभा क्षेत्र में भी अपनी पसंद का एक भी ब्लाक कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनाने दिया गया. छत्तीसगढ़ से निर्वाचित एकमात्र लोक सभा सदस्य होने के बावजूद उन्हें केन्द्र में स्थान नहीं दिया गया. जैसे यह सब उन्हें पूरी तरह बरबाद करने के लिए काफ़ी नहीं था, मुझे केन्द्र में अपनी पार्टी के सत्ता में होने के बावजूद एक केंद्रीय जांच एजेंसी द्वारा जेल में ठूस दिया गया; उनके भी ख़िलाफ़ झूठे निराधार मामले पंजीबद्ध किए गए (यह दीगर बात है की इनमे से एक भी न्यायपालिका की जांच में सही साबित नहीं हुआ).

उन्हें कोटा (२००६) ओर राजनांदगांव (२००७) उपचुनावों की जवाबदारी सौपी गई तो इनमे कांग्रेस को शानदार सफलता मिली; २००७ में ही हुए खैरागढ़, मालखरौदा ओर केशकाल उपचुनावों से उन्हें बाहर रखा गया तो पार्टी की शर्मनाक पराजय भी हुई. लेकिन इसके बावजूद इस नीति में कोई बदलाव नहीं आया. २००८ के चुनावों में टिकट वितरण प्रक्रिया से उन्हें जानबूजकर अलग रखने के लिए स्क्रीनिंग कमिटी ओर केंद्रीय चुनाव समिति की बैठकों से बहार रखा गया. बारम्बार निवेदन करने के बावजूद राज्य की जरह भी जानकारी न रखने वालों या बेहद कम जानकारी रखने वालों पर सारे अहम फैसले लेने की जवाबदारी डाल दी गई.

जोकोछो नीति का सबसे स्पष्ट प्रदर्शन तब देखने को मिला जब उन्हें कांग्रेस विधायक दल का नेता चुनने के लिए अधिकांश विधायकों द्वारा हस्ताक्षर युक्त पत्र होने के बावजूद उनकी घोर उपेक्षा की गई; जैसे यह काफ़ी नहीं था, एक ऐसे व्यक्ति को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया जिसकी इस पद पर नियुक्ति के लिए मेरे पिता ५ बरसों तक लगातार प्रयासरत रहे. ५ बरसों बाद नियुक्ति तब की गई जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से मेरे पिता से अपने-आप को दूर कर लिया. किसी भी राजनैतिक सम्मीक्षक के लिए यह स्पष्ट हो जाना चाहिए की जोकोछो नीति का उद्देश्य पार्टी में 'जोगी' के प्रभाव को सुनियोजित तरीके से कम करके छत्तीसगढ़ में एक वैकल्पिक नेतृत्व विकसित करना है.

यह बताने की आवश्यकता नहीं है की जोकोछो नीति अपने उद्देश्यों को पूरा करने में नाकामयाब रही है.

एक 'जोगी' का जवाब
५ वर्षों तक पार्टी को चलाने की जवाबदारी जिन विकल्पों को सौपी गई उन्होनें न केवल पार्टी को बरबाद कर दिया बल्कि वे सारे नेता और उनकी तमाम संतानें ख़ुद के चुनाव सिर्फ़ इसलिए हार गए क्योंकि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और आम जनता के बीच भी इन लोगों की राज्य की भाजपा सरकार से मिलीभगत की चर्चाएं आम थी. वे लोग एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने में पूरी तरह से नाकाम रहे. (अगर वे लोग जीत गए होते तो शायद आज राज्य में कांग्रेस की सरकार होती.) अपने बचाव में कहने के लिए इन लोगों के पास सिर्फ़ यह है की अपनी शर्मनाक हारों के लिए वे स्वयं नहीं वरन 'जोगी' जिम्मेदार है.

अगर यह बात सही है, तो सवाल यह उठाता है की क्यों अपनी और पार्टी की हार के लिए मेरे पिता को जिम्मेदार ठहरा रहे इन नेताओं ने अपनी चुनाव प्रचार सामग्री में ओर विज्ञापनों में उनकी तस्वीरों का भरपूर ओर खुलकर उपयोग किया:

अगर वे जितना बताते हैं, मेरे पिता उतने ही 'अलोकप्रिय' हैं, तो उनके पोस्टरों की शोभा बढ़ाने के लिए राज्य के जिस एकमात्र नेता की तस्वीरें सजी हैं, वो मेरे पिता की ही क्यों है? यह एक निहायत ही बेशर्म किस्म की ओची राजनीति का जीता-जागता उदाहरण है जिसमे अतिमहत्वकान्शा ओर कृतघ्नता के साथ-साथ मंद-बुद्धि ओर प्रतिभाहीनता का सम्मिश्रण देखने को मिलता है.

बेहद विनम्रता के साथ मैं ये कहना चाहता हूँ की हो सकता है की मेरे पिता राज्य के लोकप्रिय नेताओं में से एक हैं, लेकिन मैं यह नहीं मानता की वे इतने शक्तिशाली हैं की जिन क्षेत्रों में वे एक बार भी नहीं गए, वहां भी वे यह फैसला कर सकते हैं की किसे जीतना चाहिए ओर किसे हारना चाहिए. अगर मामला ऐसा है (हालांकी मैं आश्वस्त करता हूँ की ऐसा नहीं है) तो जोकोछो नीति को त्यागने का इससे बहतर ओर कोई तर्क हो ही नहीं सकता.

अगर तर्क के लिए यह मान भी लिया जाए की उन्होनें अपने विरोधीयों की हार तय करने के लिए काम किया तो कम से कम उनके विरोधीयों से यह तो पूछा ही जाना चाहिए की उन लोगों ने स्वयं सहित कितने लोगों की जीत सुनिश्चित की? तथाकथित प्रदेश स्थर के नेता होने के बावजूद उनमे से एक भी अपने निर्वाचन क्षेत्र को छोड़कर किसी भी अन्य उम्मीदवार के लिए एक भी दिन प्रचार करने क्यों नहीं गया, ओर अपने-अपने क्षेत्रों में पूरी ताकत झोंक देने के बावजूद फिर भी क्यों हार गया? इसके ठीक विपरीत मेरे पिता एक बार भी अपने निर्वाचन क्षेत्र में नहीं गए ओर पूरे समय पार्टी के उम्मीदवारों के लिए दीगर क्षेत्रों में प्रचार करते रहने के बावजूद, इन सर्दियों में जिन ६ राज्यों में चुनाव हुए, उनमे सर्वाधिक मतों के अन्तर से चुनाव जीत गए. किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए की पिछले पाँच बरसों में मेरे पिता के पास सिर्फ़ महासमुंद के लोक सभा सदस्य का ही पद था ओर इस लोक सभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले महासमुंद ओर धमतरी जिलों की हर एक सीट के साथ-साथ राजिम में भी कांग्रेस को जीत मिली है. इन सभी क्षेत्रों पर पहले भाजपा का कब्जा था. इन उदाहरणों से मेरे पिता की लोकप्रियता को लेकर उठाये गए सवालों का सही जवाब मिल जाता है.

कांग्रेस या भाजपा के किसी भी अन्य नेता से अधिक जनसभाएं लिए ओर रोड-शो उन्होनें किए, इस तथ्य से तो कोई भी इनकार नहीं कर सकता. १४ दिनों से भी कम समय में उन्होनें ८७ विधान सभा में से ७४ में १८६ से अधिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए हर दिन व्हिल्चायर पर १८ घंटों से अधिक समय बिताया.

उन्होनें ये सब अपने स्वास्थ्य की कीमत पर डॉक्टरों की सलाह के ख़िलाफ़ जाकर किया. हाल ही में हम लोगों ने दिल्ली के एस्कोर्ट और अपोलो अस्पतालों में २० दिन सिर्फ़ यह सुनिश्चित करने के लिए लगाए की वे फिर से अपनी सामान्य ज़िन्दगी जीना शुरू कर सकें. यह कहना पर्याप्त होना चाहिए की जब डॉक्टरों ने उनकी मेडिकल रिपोर्ट देखी तो उन्हें इस बात पर ताजुब हुआ की वे इन सब के बावजूद कैसे जीवत रह सके. उनकी ज़िन्दगी का एकमात्र उद्देश्य यह था की वे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनते हुए देखें और उन्होनें इसके लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया.

इन सबके बावजूद यदि तथाकथित नेता अपनी कमियों और गलतियों के लिए उन्हें उत्तरदायी ठहराते हैं तो उन्हें अमेरिका की आजादी की लड़ाई के दौरान बेंजामिन फ्रान्कलिन द्वारा अपने सहयोगियों से कही गई बात याद रखनी चाहिए: "यदि अब हम सब एक साथ नहीं रह सके तो सबका अलग-अलग सूली पे लटकना तय है." (We must indeed all hang together or most assuredly we shall all hang separately.)

अंत में
छत्तीसगढ़ का जनादेश कांग्रेस को नकारना नहीं है; हमें एक क्षण के लिए यह नहीं भूलना चाहिए की हमें स्पष्ट बहुमत से सिर्फ़ ६ सीटें कम मिली- ऐसी सीटें जिन्हें हमने अपनी कमियों के कारण गवांया; न की किसी काल्पनिक "चाऊर वाले बाबा" की लहर के कारण. (अगर ऐसी कोई लहर होती तो हमारा पूरी तरह से सफाया होता) यह स्पष्ट है की छत्तीसगढ़ की जनता हमसे एक ऐसे सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने की अपेक्षा रखती है जो सरकार को सीधे-सीधे उसके सारे कामों और कमियों के लिए जवाबदेही पर मजबूर करे. पिछली बार हम इस कर्तव्य के पालन में बुरी तरह से विफल रहे थे. कम से कम इस बार तो हम उन्हें निराश न करें.

साथ ही साथ हमें यह भी समझना होगा की कांग्रेसजनों के लिए आने वाला समय बेहद कठिन साबित होगा: हमारे ज़मीनी कार्यकर्ताओं में से बहुत से लोग राज्य सरकार के द्वारा सुनियोजित तरीके से बदले की भावना के साथ निशाना बनाए जा रहे हैं. भाजपा शासन के और पाँच सालों के बाद इस बात की संभावनाएं हैं की सरकार और संघ के बीच कोई फर्क नहीं रह जायेगा. अतः एक दूसरे पर खुले आम आरोप मढ़ने के बजाये हमें मूल रूप से तीन चीज़ों पर ध्यान देना चाहिए:
बस्तर की आत्मा के लिए संघर्ष में विजय प्राप्त करना; सतनामियों को वापस कांग्रेस से जोड़ना; और प्रदेश में पार्टी संगठन के पुनर्निर्माण के दौरान जनादेश को समझकर, उसका सम्मान करना. यदि हम ऐसा नहीं कर पाते, तो हमें उत्तर प्रदेश और बिहार के रास्ते पर जाने से कोई नहीं रोक सकता; और हमारी भविष्य की पीढियां- हमारी अजन्मी संतानें- हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी.
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