Saturday, February 28, 2009

लखीराम अग्रवाल- एक श्रद्धांजली

एक युग का शांतिपूर्ण समापन
मैं अक्सर यह सोचता हूँ कि क्या छत्तीसगढ़ के शासक दल के भीष्म-पितामह, लखीराम अग्रवाल, अपनी मृत्यु के समय संतुष्ट थे? लगभग दो बरस पहले, सन् २००७ में, जब मैं उनसे मिलने उनके खरसिया निवास पर गया था, तब वे खुश तो नहीं थे. मैं मानता हूँ कि इस नाखुशी का कुछ हिस्सा उस समय हाल ही में उनके पुत्र, अमर अग्रवाल, को राज्य मंत्रिमंडल से हटाये जाने से सम्बंधित था. (ऐसा लगता है कि इस मामले में उनसे विचार विमर्श नहीं किया गया था.) लेकिन इस नाखुशी का ज्यादा बड़ा कारण न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि समूचे भारत में
भाजपा का कांग्रेसीकरण हो जाना था. आखिरकार, समकालीन संघ साहित्य में इस बात की दुहाई बार बार पढ़ने को मिलती है. इस वाक्यांश का लाल कृष्ण अडवानी की आत्मकथा और आर.एस.एस. के मासिक मुखपत्र "पांचजन्य" (Organiser) के सम्पादकीयों में उपयोग बढ़ता ही जा रहा है.

उस मुलाकात में हम अकेले नहीं थे. इसके पहले सन् २००३ में जब मैं उनसे मिला था, तब चर्चा के विषय का अनुमान लगाने में प्रेस ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी. इस से हम दोनों को बेहद शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था क्योंकि उस नितांत अनौपचारिक बातचीत में राजनैतिक जोड़तोड़ की चर्चा कहीं थी ही नहीं. इसलिए इस बार मैंने इस मुलाकात में उपस्थित रहने के लिए प्रेस को आमंत्रित कर लिया था. बिना लागलपेट के हुई हमारी बातचीत में उन्होंने राज्य सरकार के कुछ नेताओं को
'औरंगजेब' की उपाधि देकर खलबली मचा दी थी. (यहाँ, उन्होंने बड़ी आसानी से हिन्दू समाज के पितृहंताओं के उदाहरणों की अनदेखी कर दी थी.) सर्वाधिक विस्मयजनक तो यह रहा कि किसी ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं लिखकर मेरे इस विश्वास को और दृड़ बना दिया कि यदि दोगुलेपन और अनावश्यक गोपनीयता के बजाय कूटनीति खुलेपन और स्पष्टवादिता के साथ की जाए तो वह उनती बुरी नहीं है. उस समय कांग्रेस की कोटा उपचुनाव में जीत के बाद वे भाजपा के सत्ता में वापसी को लेकर आश्वस्त नहीं थे. इसके लिए वे युवाओं में बुजुर्गों के प्रति सम्मान की कमी को सीधे-सीधे जिम्मेदार मानते थे. इसके मतलब को समझ पाना ज्यादा कठिन नहीं था.

मेरे पिता जी अक्सर मुझसे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में जनसंघ-भाजपा की इमारत को खड़े करने का श्रेय पूरी तरह से श्री अग्रवाल और उनके लम्बे समय के सहयोगी रहे कुशाभाऊ ठाकरे को जाता है. इन दोनों ने उस युग की कांग्रेस की अजेय मशीनरी की पूरी शक्ति के खिलाफ काम करते हुए, हर संभव कठिनाइयों से जूझते हुए, नए रंगरूटों की तलाश में राजमाता ग्वालियर द्वारा दी गयी एक टूटी-फूटी खटारा जीप में अविभाजित मध्य प्रदेश के सुदूर अंचलों का दौरा करके, वर्त्तमान सत्ताधारी दल की नींव रखी. प्रश्न अब यह उठता है कि क्या उनकी पार्टी ने उन्हें अंततः छोड़ दिया था?

ऐसा लगा कि वे ऐसा ही सोचते थे. लेकिन यह अलगाव व्यक्तिगत से कहीं अधिक सैद्धांतिक था. अपने अन्य दक्षिणपंथी समकालीन सहयोगियों की ही तरह उन्होंने कांग्रेस के तथाकथित वंशवाद से ग्रस्त गलते हुए और उनके अनुसार अंततः निरर्थक ढांचे के विकल्प के निर्माण के ध्येय से अपनी लम्बी कष्टपूर्ण जीवन यात्रा शुरू की थी. इसमें उन्हें सफलता भी मिली. लेकिन बेहद विडम्बना पूर्ण. छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में जो विकल्प सत्ता में आया, वह उसी संस्कृति का एक दूसरा स्वरुप है, जिसे बदलने के लिए उन्होंने ता-उम्र जद्दो-जहद की थी.

सत्ता की प्रवृत्ति के तीन उदाहरण
इस सन्दर्भ में चैरमैन माव की क्रांति पर प्रोफेसर तान चुंग के ञानविषयक मूल्यांकन का ख़याल आता है. क्रांति के पहले और क्रांति के बाद की चीन की राजनीति की संरचना का विश्लेषण करते हुए उन्होंने पाया कि नवनिर्मित पोलितब्यूरो के सदस्य करीब-करीब उन्ही घरानों से थे जिन्होनें पूर्वर्ती मांचू सम्राटों को शासनाधिकारी दिए थे.

और पास में देखे तो मुझे याद है कि मेरे पिता जी के एक मित्र ने
रायपुर में आयोजित विभिन्न मुख्यमंत्रियों के स्वागत समारोहों के कुछ फोटो देखाए थे. पहली नज़र में उन पीले पड़ चुके चित्रों में कुछ भी विशेष रूप से उल्लेखनीय नहीं था. गौर करने पर मुझे पता लगा कि सभी चित्रों में केवल मुख्यमंत्री का चेहरा बदला है, उनके आसपास ऊर्जावान याचना की विभिन्न मुद्राओं में तैनात लोग और उनकी भावभंगिमाएं सभी फोटो में बिलकुल एक जैसे हैं. लगभग दो दशकों के अंतराल में लिए गए विभिन्न चित्रों को देखकर ऐसा लगा जैसे शाश्वत और निरंतर स्वागतकर्ताओं के इस ऐतिहासिक समूह ने किसी जादू के बल पर समय के साथ-साथ आयु को ययाति की तरह जीत लिया है.

इस चिरयुवा प्रजाति के बचाव में मैं हरयाणा के एक पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे के द्वारा मुझे सुनाया गया एक छोटा सा वाकया प्रस्तुत करना चाहता हूँ. पहली बार कार्यभार ग्रहण करने के बाद जब उनके पिता सुबह सैर पर निकले, तो उनके साथ एक ऐसा आदमी लग लिया जो उनसे भी पहले यह जान जाता था कि वे क्या चाहते हैं. स्वाभाविक रूप से समय के साथ-साथ यह साथ गहरी दोस्ती में बदल गया. उनके शब्दों में ही कहें तो वे लोग दो जिस्म एक जान हो गए थे. फिर जब वे सत्ता से हटे, तो इस आदमी का कहीं अता-पता ही नहीं चला. सालों बाद वे फिर से सत्ता में लौटे. और फिर सुबह की सैर के समय उन्होंने उसी व्यक्ति को अपने साथ पाया. पीड़ा और विस्मय के साथ उन्होंने उससे पूछा कि "मैं सोचता था कि हम लोग बहुत अच्छे मित्र थे. इतने साल तुम कहाँ चले गए थे?"

बेहद भोलेपन से उस व्यक्ति ने कहा:
"चला गया था? चले तो आप गए थे, हुज़ूर. मैं तो यहीं था."

असहज मुखिया
उपरोक्त तीनों उदाहरण सत्ता की वास्तविक प्रकृति पर रौशनी डालते हैं. संक्षेप में कहें तो सत्ता में ऐसी ईश्वरीय-क्षमता है कि किसी को भी अपनी छवी में ढ़ाल लेती है. सत्ता में आने के बाद भाजपा प्रलोभनों के मंत्रमुग्ध कर देने वाले इस सम्मोहन से नहीं बच सकी. उदाहरण स्वरुप, कई मायनो में स्वर्गीय प्रमोद महाजन का किसी भी अन्य जीवित कांग्रेसी से अधिक कांग्रेसीकरण हो गया था. कांग्रेसी सत्ता में बने रहने को एक कला मानते हैं; लेकिन श्री महाजन ने उसे एक अत्याधुनिक विज्ञान में तब्दील कर दिया, और इस प्रक्रिया में देश में राजनीति करने के तौर-तरीकों को हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया. (छत्तीसगढ़ में भाजपा की सत्ता में वापसी का श्रेय इस बदलाव को ही जाता है.)

श्री अग्रवाल ने इस बदलाव की आहट को भली-भाँती समझ लिया था. सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ पुराने नेताओं के साथ-साथ आर.एस.एस. के सरसंघचालकों, केशव हेडगेवार और माधव गोलवलकर, के पुराने विचारों और कार्यपद्धति को हाल ही में बनी भाजपा की राज्य सरकारों के मंत्रियों द्वारा दरकिनार किया जाना था, जिसे समकालीन राजनैतिक समीक्षक भाजपा और संघ के बीच बढ़ती दूरियों की संज्ञा देतें हैं. आखिर, लखीराम जी कैसे भूल सकते थे कि उनका स्वयं का बेटा भी एक मंत्री है?

विशेष रूप से यह आखिरी पहलू उन्हें परेशान करता था. एक बार उन्होंने मुझे बताया कि जब भी पार्टी की बैठकों में संभावित उम्मीदवार के रूप में उनके बेटे के नाम पर विचार किया जाता था, तो वे चुपचाप उस कमरे से बहार निकल जाते थे ताकि निर्णय पर किसी तरह का प्रभाव न पड़े. उनका मानना था कि अगर उनके बेटे को पार्टी कि टिकिट दी जाती है, तो उसकी योग्यता के कारण न कि खून के रिश्ते के कारण. स्पष्ट रूप से वे वंशवादी होने के आरोपों से बचना चाहते थे. आखिरकार, उनके लिए सारी ज़िन्दगी के परिश्रम का अर्थ अपने वंश के अभ्युदय से कहीं बहुत अधिक था. मानो वो घोषणा करना चाहते थे कि
"कोई यह नहीं कह सकता कि मैंने सब कुछ अपने बेटों के लिए किया."

गैर-वंशवादी
मेरे दृष्टिकोण में इस सम्बन्ध में उनकी आशंकाएं पूरी तरह से बेबुनियाद थीं. वास्तव में उनके केवल एक बेटे ने राजनीति में प्रवेश किया और एक ऐसे क्षेत्र से लगातार जीत हासिल की जहाँ उनके पिता का कोई ज्यादा प्रभाव नहीं था; एक ऐसा क्षेत्र जो पहले कांग्रेस का गढ़ माना जाता था. बाकी बेटे परिवार के गुडाखू व्यवसाय में लगे रहे. उनकी जीवन भर की महनत से यदि किसी परिवार को लाभ मिला तो वह उनका निजी परिवार नहीं बल्कि वह परिवार था जिसे आर.एस.एस. के विचारकों ने 'संघ परिवार' की संज्ञा दी है. संघ के लिए बेहद उपयोगी साबित हुई अपनी पुस्तक "हम और हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा" (We or our Nationhood Defined) में श्री गोलवलकर ने लिखा है कि
"संघ समाज में संगठन नहीं, समाज का संगठन है."

श्री लखीराम को छत्तीसगढ़ में संघ परिवार के अविवादित मुखिया बने रहना का पूरा अधिकार था. आखिरकार, यदि उन्होंने यहाँ के दूरस्त अंचलों की यात्रा नहीं की होती-
जशपुर जाकर वहां के युवा राजकुमार, दिलीप सिंह जूदेव, को भाजपा से जुड़ने के लिए तैयार नहीं किया होता या कवर्धा जाकर वैसे ही एक और युवा आयुर्वेदिक चिकित्सक, डॉक्टर रमण सिंह, को आर.एस.एस. की शाखाओं में शामिल होने के लिए प्रेरित नहीं किया होता- तो भाजपा कभी सत्ता में नहीं आ पाती. लेकिन उनके यही चेले अपने गुरु के खिलाफ होते रहे.

मैंने पहली बार इसे तब महसूस किया जब सन् २००१ में १२ भाजपा विधायकों ने कांग्रेस में शामिल होने का फैसला लिया, जो कि भारतीय इतिहास में अपनी तरह का पहला और आखिरी उदाहरण है. सबसे ज्यादा चौकाने वाली बात तो यह थी कि उनमे से अधिकतर लोगों ने अपने दल-बदल का सबसे प्रमुख कारण जो बताया, वह केवल दो शब्दों का था: लखीराम अग्रवाल. उनकी शिकायत थी कि पार्टी के विधायक होने के बावजूद जब वे अपने गुरु के पाँव छूते थे, तब वे उनकी तरफ देखने की जरूरत भी नहीं समझते थे. इस से इन विधायकों को बेहद पीड़ा होती थी. जब मैंने 'लखी अंकल' को यह बताया, तो वे यह कहकर हंस दिए कि
"यदि ऐसा था तो उन्हें मेरे पाँव छूने की जरूरत नहीं थी."

जिसे लोगों ने बेपरवाह घमंड समझा, वह वाकई में एक स्वनिर्मित व्यक्ति का आत्म-सम्मान था. उनकी दुनिया में उन्हें किये जा रहे अभिवादनों का उत्तर देने या स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं थी. शायद वे इन अभिवादनों को आदर का एक ऐसा फर्जी प्रदर्शन मानते थे जो उनकी कृपा से राजनैतिक अस्तित्व में आये लोगों के द्वारा और ज्यादा लाभ लेने की कोशिश मात्र थी. उनके अनुमान से यदि वे लोग वाकई में स्वीकरोक्ति की अपेक्षा रखते थे, तो यह नितांत हास्यापद था.

मैं इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हूँ. यह अच्छी राजनीति भी नहीं है. मैं एक ऐसे परिवार से हूँ जिसका उपकार करने और उपकार लेने का एक लंबा इतिहास है. उपकार के बदले में आभार की अपेक्षा रखना- उसे अपना अधिकार समझना- अव्यावहारिकता का परिचायक है. वास्तविकता तो यह है कि अक्सर लोग उनको किये गए उपकार को इश्वर-प्रदत्त मानने लगते हैं; कभी-कभी वे उसे अपनी महनत का फल भी समझ लेते हैं. समकालीन मूल्यों को स्वीकार न करके श्री अग्रवाल अपने उस भोलेपन का सबूत दिया जो उनकी पीढ़ी के लोगों में असामान्य नहीं है. इस प्रक्रिया में उनके अपने कई चेलों से सम्बन्ध बिगड़ गए, जो आज सरकार और संगठन, दोनों में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं.

व्यक्तिगत-राजनीतिज्ञ
हम में से जिन लोगों को आगे लाने में उनका कोई योगदान नहीं था, या जिनपर उनके उपकार नहीं थे, उनके प्रति वे संकोच में डाल देने की सीमा तक विनम्र थे. राज्य सभा के मेरे पिता जी के लम्बे समय तक सहयोगी होने के बावजूद, उम्र में मुझसे लगभग आधी सदी बड़े होने के बावजूद, और हर मायने में मुझसे बेहतर होने के बावजूद, जब भी मैं उनसे मिलता था, वे मुझे बेहद आदर से
"अमित जी" कहकर पुकारते थे.

मैं मनाता हूँ की वे एक अच्छे समालोचक भी थे. एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि वे सोचते हैं कि संभवतः मेरे पिता जी मध्य प्रदेश के सुविख्यात मुख्यमंत्री और उनके सबसे पुराने राजनैतिक गुरु, अर्जुन सिंह, से भी बेहतर प्रशाषक थे. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि मेरे पिता जी को महान बनने से उनकी दूसरों से सलाह-मशविरा न करने की प्रवृत्ति ने रोका. मैं आज यह नहीं कह सकता कि मेरे पिता जी की कार्यप्रणाली के सम्बन्ध में उनका यह दृष्टिकोण कितना सही था. लेकिन शायद श्री अग्रवाल के सुप्रसिद्ध प्रचार तंत्र से प्रभावित जनमानस की धारणा तो ये ही है. हालांकि इस सलाह की सदाशयता से कोई इनकार नहीं कर सकता है. आखिरकार, सलाह-मशविरा करना स्वयं में महत्त्व रखता है; उस से सहमती होना या न होना दीगर बात है.

किसी भी स्थिति में मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ कि राज्य का कोई अन्य भाजपा नेता अपने किसी राजनैतिक प्रतिद्वंदी के बारे में इस तरह की टिपण्णी करे, और उसके बेटे को सत्ता में वापसी के लिए सकारात्मक सलाह देने की सीमा तक चला जाए. यह शायद इसलिए था क्योंकि श्री अग्रवाल मेरे पिता जी को सिर्फ एक ऐसा विरोधी नहीं मानते थे जिसे लड़कर नेस्तनाबूत कर देना है बल्कि मैं मानता हूँ कि वे मेरे पिता जी को एक साथी और एक मित्र की तरह समझते थे. क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का अधिकाँश हिस्सा संघर्षों में बिताया था, अतः वे सत्ता संघर्ष की उस उहापोह से दूर रहते थे जो
"सत्ता परमोधर्म" की नीति पर चलने वालों के अंतर्मन में उत्पन्न होने वाली निहायत ही अहमकाना असुरक्षा को जन्म देती है.

इसलिए उनकी दुनिया में
करो या मरो किस्म के सत्ता के कुटिल खेलों के लिए जगह नहीं थी. बल्कि जिन लोगों से वे सहमत नहीं रहते थे, उनसे भी परिचय और मेल-मुलाकात की गुंजाइश बनी रहती थी. उनके लिए राजनीति कभी व्यक्तिगत रंजिशों का रूप नहीं लेती थी. (उनसे कुछ कम लेकिन कुछ हद तक यह गुण उनके पुत्र को भी विरासत में मिला है.) इस से भी बड़कर वे व्यक्तिगत संबंधों को राजनीति से ऊपर रखते थे. उनकी बहु के अंतिम-संस्कार के समय पिछले बरस उन्होंने मुझसे कहा था कि उनके मित्र, श्री ठाकरे, के निधन के बाद पार्टी मीटिंग या अन्य किसी कारण से भी उनका दिल्ली जाने का मन नहीं होता है. उनकी पार्टी के नई दिल्ली के अशोक रोड स्थित राष्ट्रीय मुख्यालय में उन्हें अपने दिवंगत मित्र की बेहद याद आती है क्योंकि श्री ठाकरे ने संगठन के लिए समर्पित होकर वहां एक ब्रह्मचारी के रूप में एक ही कमरे में अपना अधिकाँश जीवन बिता दिया, शायद इसलिए क्योंकि उनके पास जाने के लिए कोई दूसरा ठौर या कारण नहीं था.

यह कहा जाता है कि किसी व्यक्ति के जीवन की सार्थकता का अनुमान उसके अंतिम-संस्कार में सम्मिलित लोगों से लगाया जा सकता है. श्री अग्रवाल एक अतूलनीय संगठक होने के अलावा न तो किसी पद में थे, न ही किसी विषय के विशेषज्ञ या शिक्षाशास्त्री या कोई बड़े कलाकार थे. इस के बावजूद उनकी पार्टी और उसके बाहर के भी, और वे भी जिन्हें राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, ऐसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के लोग, उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए आये थे, जिनके जीवनों को अपने कार्यों से उन्होंने छुआ था, और जिन्हें उन्होंने राहत पहुंचाई थी. वे लोग मुख्य रूप से इसलिए आये थे क्योंकि वे उन्हें जानते थे और उनसे स्नेह करते थे, व्यक्तिगत रूप से.

दीर्घकालीन व्यक्तिगत संबंधों के लिए सैधांतिक या राजनैतिक रूप से एकमत होना अनिवार्य नहीं है.
राजनैतिक विरोधी भी अच्छे व्यक्तिगत मित्र हो सकते है. हमारी पीढ़ी के राजनीतिज्ञों को श्री अग्रवाल द्वारा दी गयी यह सबसे महत्वपूर्ण सीख है. छत्तीसगढ़ के लिए यह उनकी सबसे स्थायी विरासत भी है. 
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